The Poet

मैं भी चाहता हूं तू शर्मिंदा न हो पर कहां जाकर बैठूं तू जहां न हो – राकेश शुक्ल ‘मनु’

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जो गुनाह नहीं किए मैंने उनकी भी तुमसे सज़ा चाहता हूं चाहा था तुझे छोड़ कुछ दिखाई न दे नजरें

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हकीमों दवाखानों में गुजार दी तूने तमाम उम्र ‘मनु’ पर जब भी गिरेबां में देखा दिल के ज़ख्म हरे ही

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रकीबों की दिल्लगी का क्या बुरा मानना ‘मनु’ दिल लगाने की गुस्ताखी तो तूने भी की – राकेश शुक्ल ‘मनु’

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या खुदा उससे अलग मुझे अपनी कोई खुदाई ना दे ऐसा कभी सितम न कर के उसका प्यार मिले पर

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जबसे तू रूठा है ये हाल हो गया है खुश्क सर्द मौसम बदलते है मलाल नहीं गया है – राकेश

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हमारा प्यार भी क्या शकिस्ता-ए-दिल निकला तू तंग दिल निकला ‘मनु’ संग दिल निकला – राकेश शुक्ल ‘मनु’

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कमज़र्फ होने का दाग तो बचपन से था ‘मनु’ एक प्यार का हुनर था जो जवानी ने छीन लिया –

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दिल जलता है मेरा, ऐसी पीर जिसका कोई इलाज नहीं बस समझ नहीं आता, सांस आखिरी है या आस आखिरी

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नहीं आऊंगा अब कभी दर पर दीदार को तेरे राकीबों की कतारों की अबतक आदत नहीं मुझे – राकेश शुक्ल

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