जो गुनाह नहीं किए मैंने

उनकी भी तुमसे सज़ा चाहता हूं

चाहा था तुझे छोड़ कुछ दिखाई न दे

नजरें गई तो देखना चाहता हूं

कभी तकते थे चांद तुझे सोचकर

अब रात ही न आए यही चाहता हूं

टूटे दिल का वजन सहा नहीं जाता

टूट कर बिखर जाऊं यही चाहता हूं

क्या था वो इश्क के सामने थे पर तुम्हें दिखाई न दिए

एक बार फिर गायब हो जाऊं यही चाहता हूं

तेरी दुनिया से टूट कर मरने की तमन्ना की

आखिरी सांस है तो जीना चाहता हूं

जानता हूं तेरा दीदार अब मुनासिब नहीं

रकीब का ही हो, ये मैं क्या चाहता हूं

तेरे साथ जीने की बहुत तमन्ना कर ली

अब थक गया हूं फना चाहता हूं

तुझे कभी काबा मान के किए थे सजदे

अब आखिरी सांस में खुदा चाहता हूं

मलहम था तू कभी मेरे जख्मों पर

अब फिर से उनको हरा चाहता हूं

उठ़ते थे रोज हाथ जो दुआ में

अब कट ही जाएं यही चाहता हूं

मां का साया ना मिला न सही

तेरे आंचल में जगह चाहता हूं

प्यार को बांट दिया रिश्तों में

मैं इससे परे एक जहां चाहता हूं

जो गुनाह नहीं किए मैंने

उनकी भी तुमसे सज़ा चाहता हूं

– राकेश शुक्ल ‘मनु’


Scroll to Top