तलाक़: एक रुका हुआ फैसला
तलाक़ क्या दिलों के भी होते हैं?
शादियां एक अनुबंध हैं
किसी किताब को साक्षी मानकर
या सरकार को साक्षी मानकर
मान, मर्यादा, संपत्ति का
जब टूटता है तो सब विभाजित हो जाता है
कुछ तुम्हारे हिस्से कुछ हमारे!
लेकिन दिल जो सिर्फ तुम्हारा था
इससे तुम्हें अब कुछ सरोकार नहीं
अब कहां लेकर जाऊं इसे
मेरे लिए तो जिस दिन तुम मिली थीं
उस दिन ही मेरे लिए धड़कना बंद कर दिया था
और कैसे हुआ ये तलाक?
क्योंकि रिश्ता तो केवल दिलों का था
किसी मंदिर गिरजे कचहरी में हुआ ही नहीं
इल्जाम भी तुमने लगाए फैसला भी तुमने सुनाया
मैं कहां जाऊं सुनवाई के लिए
किसके पैर पकडूं
अपना पक्ष रख पाऊं?
आज भी तुम वही हो मेरे लिए
लेकिन फासले बढ़ गए हैं शायद
इसलिए तुमनें अकेले फैसला कर लिया
बस इतना जानता हूं
पेचीदा से पेचीदा मामलों का हल होता है
अगर सुलझाने की चाहत हो
कुछ देश बांट गए कुछ जुड़ गए
शायद तुम्हें कोई चाहत नहीं
इसी लिए तुम मुझे इस टूटे दिल के साथ
पीछे कहीं छोड़ आई हो
मेरे लिए ये फैसला अभी भी रुका हुआ है
– राकेश शुक्ल ‘मनु’ / original by Rakesh Shukla