रेत की लकीरें

अब पत्थरों पर उतर आईं

दोजख के सपने

सच्चाई बन गए

दिलों का बटवारा तो हो गया

यादों का कैसे करूं

बेइंतहा मोहत्ताब की तो अब

इंतहान भी हो चुकी

तेरा सब्ज़ बाग दिखा कर

रात भी सो चुकी

जिसे दिल से जला कर रक्खा

वो लौ भी सो चुकी

अब, अब बस अहसास है बचा है

उस प्यार का

मझधार में डूबते हुए मेरे मन की

आखिरी आह का

तू मिल जाती मेरी हमनफ़स

तो सांस चलती रहती

बहुत दूर निकल आया हूं

तुझे पाने की चाह में

भटक कर रह गया हूं

तपते रेगिस्तान में

तपती रेत में ही दिखती है

तू ही तो है, मेरी मृगतृष्णा

– मृगतृष्णा, Rakesh Shukla


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