हां मैंने खुदा देखा है
शब-ए-वसल का हर पल याद है मुझे
तेरे चेहरे का हर बदलता हुआ रंग
तेरे बदन की हर खुशबू
तेरे आंखों से मेरी आंखों में उतरे वो आंसू
मेरे माथे से लिपटी हुई तेरी ज़ुल्फ
तेरे होठों से निकला हर हर्फ
तेरा निढाल होकर गिर जाना
हां मैंने खुदा देखा है
अब किस बुत खाने में जाऊं सजदा करने
जानता हूं तू वहां नहीं है
तू सबको दिखता है मुझे ही नहीं
सबको मिलता है मुझे ही नहीं
दोजख की आग में क्या मेरा ही जलना लिखा है?
तेरे नमाज़ी तो हम भी थे तमाम उम्र
फिर मुझ पर ही तेरा करम क्यों नहीं होता
क्या मैं ही काफिर निकला
या तमाम उम्र सजायाफ्ता ही रहूंगा
या तू इतना मसरूफ है
या सजा है तेरे पैरों को चूमने की
पर हां
एक बार ही सही
मैंने खुदा देखा है
– राकेश शुक्ल ‘मनु’