मैं रोज़ हार जाता हूं
काम पर जाते समय
अपने आप को कहता हूं
की तेरी बनाई रोटी की याद नहीं करूंगा
तेरे दफ्तर से आए फोन की घंटी पर
एक मिनट में साड़ी पहन लेना जैसे घंटों लगाए हों
अभी भी विस्मित कर देता है
अपने आप को अकेला शीशे में देखकर मुस्कुराता हूं
जब तू अपनी साड़ी की सलवटों को हाथ में पकड़
गाड़ी की ओर बढ़ती थी, तो सांस रोक लेता था
इसलिए भी कहीं तू गिर न जाए
और इसलिए भी के एक पैर में पहनी पायल
को चूमना चाहता था
दफ्तर पहुंच कर बार बार फोन अभी भी देखता हूं
की तूने कुछ लिख भेजा होगा
जबकि जानता हूं ऐसा कभी होगा नहीं
आते समय तेरी प्यारी भिंडियों
को एक एक कर छांटना
जैसे तुझे पसंद था
मैं तो बचपन से जब जो मिला जब मिला
खा लिया करता था, तू ऐसी न थी
घंटों उस भिंडी को भूनती
फिर मुझे खाते हुए देखती
सोचता हूं मेरे बाद तुझे जो प्यार करता होगा
क्या वह ये सब देखता होगा?
क्या तेरी साड़ी में उडसी चाबियों में
उसका दिल भी उड़सता होगा?
मेरा अब कोई हक नहीं
अपने आप से कहता हूं फिर नहीं कहूंगा
दिन भर की दौड़ के बाद
फिर वही याद आती है
शाम को अपने आप से फिर कहता हूं
तुझे याद नहीं करूंगा
लेकिन मैं जानता हूं
मैं रोज़ हार जाता हूं
– राकेश शुक्ल ‘मनु’
इस कविता के सभी पात्र और घटनाए काल्पनिक है, इसका किसी भी व्यक्ति या घटना से कोई संबंध नहीं है। यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा|